रविवार, 1 जून 2014

रेप -दोषी कौन समाज या प्रशासन

बीतेदिनों फिर दो नादान  दलित लडकिया हवस के दरिंदो  शिकार हुई तब से लेकर आज तक अखबारों में बलात्कार की घटनाओ का जिक्र कम नहीं हुआ घटना बदायू की हो या आज़मगढ़ की या  फिर दिल्ली के निर्भया की जिस तरह से अपराध का   ग्राफ बढ़ रहा है उससे साफ़ लगता है की कानून का डंडा केवल शरीफ आदमियो के सर पर ही सवार है न की बदमाशो के शुक्र है मिडिया का जिसकी वजह से काफी घटनाये खुल कर सामने आ जाती है और उन मामलो में थोड़ी ही सही लेकिन सरकार और प्रशासन को कार्यवाही करनी ही पड़ती है भारत देश में जहा नारी को देवी  दर्जा दिया जाता है ऐसा लगता है की ये केवल किताबो और भासणो तक ही सिमट  है अब गलती किसकी निकली जाय काफी लोगो से इस मुद्दे पर जब भी मैंने बात की तो अधिकांश लोगो ने यही कहा कि इसमें 90 % मामले फर्जी होते है जो द्वेषवश बनाये जाते है अब इन्हे कौन समझाए की केवल द्वेष की भावना से कौन अपने इज्जत की नीलामी सरेबाजार करना चाहेगा लेकिन इस तर्क का उत्तर ये सामाजिक प्राणी कुतर्को से देते है तो यहाँ पर एक सोच ,नजरिया खुलकर सामने आता है  जो बलात्कारियो के साथ इन्ही सामाजिक प्राणियों की सहानभूति  दिखलायी पड़ती है दूसरी बात जब भी बलात्कार पीड़ित या उसके परवारीजन पुलिस थानो में अपनी फरियाद लेकर जाते है तो पहले पुलिसवालों के घृणास्पद दृष्टि का सामना इनको करना पड़ता है भुक्तभोगी अगर समर्थवान है तो एन केन प्रकरेण उसकी प्राथमिकी दर्ज कर ली जाती है लेकिन अगर वो गरीब या दलित परिवार से संबंधित है तो डांट कर भगा दिया जाता है मतलब न के बराबर कार्यवाही उस पर से ये तुर्रा ये कि इनके पहले से ही अवैध सम्बन्ध थे जो टूटने पर बलात्कार में बदल गए जब मिडिया हल्ला करती है तो इनकी आँख थोड़ा सा खुलती है और ऊपर से दबाव आने पर प्राथमिकी दर्ज कर ली जाती हैफिर परदे के पीछे से दबंगो का आगमन होता है जो मामले को हल्का बनाने के लिए तरह तरह के दबाव डालते है प्रक्रिया इतनी सुस्त रफ़्तार से चलती है तब तक नया कांड हो जाता है और पुराना मामला ठन्डे बस्ते में चला जाता है पीड़ित भी समाज में फिर से जीने के लिए खामोश हो जाता है क्या लगता है आपको क्या इस तरह के समाज और शासन प्रणाली से नारी जाति का कुछ भी भला हो सकता है आखिर दोषी कौन है हमारे ही समाज के लोग या फिर पुलिस ,न्याय प्रशासन जिसमे कार्य करने वाले लोग भी इसी समाज से निकले है रही बात प्रदेश सरकार की तो इनसे आशा करना ही बेमानी है क्योकि जब इनके मुखिया कह चुके है की लड़के है इनसे तो गलतिया हो ही जाती है इसका मतलब ये नहीं इन्हे फ़ासी पर लटका दिया जाय  यथा राजा तथा प्रजा की कहावत को चरितार्थ करते हुए इनके नौकरशाह की भाषा भी कुछ ऐसी ही है फ़िलहाल दलित समुदाय के होने की वजह से मायावती का आगमन भी हो चला है और रेप पर राजनीती एक बार फिर शुरू हो गयी है कहना मुश्किल है कि भविष्य में क्या कोई ऐसा विधान या सामाजिक तानाबाना बनेगा जिससे महिलाओ के आत्मसम्मान की सुरक्षा हो सकेगी ये सवाल केवल सरकार या प्रशासन के सामने ही नहीं वरन इस भारतीय समाज के भी सामने मुह बाये खड़ा है देखते है जवाब कब मिलता है ?.........................