मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

चीटी-एक अनमोल कृति

चीटी इश्वर की सबसे अनमोल कल्पना का साक्ष्य रूप जो इस धरा पर सैकणों वर्षो से कार्यरत है निरंतर बिना किसी स्वार्थ के अपने लक्ष्य को भेदती चली आ रही है अनेक विद्वानों का कहना है की इश्वर की सबसे अनमोल कृति मनुष्य है लेकिन मै इस सत्य को पूर्ण रूप से स्वीकार करने में असमर्थ हु क्योकि आज मुझे मनुष्य से भी अनमोल कृति प्राप्त हुई है वह है "चीटी " सोचने में कितना विचित्र लगता है की यह छोटा सा जीव मनुष्य जैसे भीमकाय और शक्तिशाली प्राणी से किस तरह श्रेष्ठ है परन्तु यही सत्य है और इसका सबसे बड़ा प्रमाण है परोपकार। चीटी जो मनुष्य की तरह अपने भीतर स्वार्थ को नही रखती निरंतर केवल एक दूसरे के लिए हमेशा खाद्य संचय करने में जुटी रहती है और इस प्रयास में कितनो को अपने प्राणों की आहुतिया देनी पड़ती है परन्तु वह बिना स्वार्थ के अपने कार्य को सम्पन्न करने में जुटी रहती है कितना निर्छल है इनका संसार,चीटी एक बहुगुणी और स्रमवान प्राणी मेरे मतानुसार इस धरा पर चीटी जैसा श्रमवान जीव कही भी शायद ही मिल जाय,अथक मेहनत विष्वास और पूर्ण लगन से मेहनत करने वाली जीव चीटी । आज जबकि मनुष्य हर प्रकार के ईश्वर विरोधी कार्यो में लींन है जिसे हमारे मानव समुदाय के कुछ प्राणी अपने ऊपर के दोषों को नज़रंदाज करके ये कहते है की"भइया कलियुग है इस युग में ऐसे कार्य तो होते रहेगे" लेकिन कोई ये नही सोचता की इस कलियुग को हम सतयुग में कैसे बदल सकते है हम भगवान् राम तो नही पर कुछ उनकी तरह कार्य तो कर ही सकते है ये सब देखकर मुचे चीटिया ही ठीक लगती है जिन्हें कलियुग भी नही हरा सका अजेय चीटिया,समझ में नही आता इस चोटी सी काया में कितनी ताकत है की ये सतियुग में में भी प्रगतिशील थी और आज कलियुग में भी उसी तरह स्वार्थहीन और प्रगतिशील है "क्या मनुष्य चीटी के जितना भी साहसी नही क्या वो एक चीटी से हार गया"यह कहना अब अनुचित न होगा । आज मै मानव और चीटियों को देखकर तुलना करता हु तो मुझे ये नन्ही नन्ही चिटिया ही विशालकाय शरीर वाले इंसानों से कई गुना श्रेष्ठ लगती है सचमुच चिटिया ही आज तक ईश्वर के नियमो का पालन करने में सक्षम रही है ईश्वर की सभी कृतियों को तुलनात्मक ढंग से देखा जाय तो श्रेष्ठता की पदवी मानव समुदाय को नही बल्कि इन चीटियों को दे देना चाहिए आज अगर ईश्वर अपने निवास से कही इस धरा का अवलोकन कर रहा होगा तो उसे कितना दुःख पहुचेगा वह सोचने के लिए विवश हो जाएगा की मेरी यह सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य जिसे मैंने अपने तन मन से निर्माण किया था आज वह धूल-धूसरित होगया जिसे मैंने सदैव अच्छे और धर्म के रस्ते पर चलने का उपदेश दिया वो आज सभी प्रकार के कुकर्मो को किए जा रहा है और अगर यह सोचते हुए उसकी निगाह यदि चीटियों पर पड़ गई तो वह उसे निष्चित ही अपनी अनमोल कृति मान लेगा और अगर एसा हुआ तो मानव समाज एक जहरीला कीड़ा बनके रह जायगा अगर सही समय पर मनुष्य ने इन चीटियों की नक़ल करके अपने को न सुधार तो मानव समाज में प्रलय मच जायगी जिसका जिम्मेदार ख़ुद मानव समाज होगा ।

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

रामलीला

रामलीला अर्थात भगवन श्रीरामचंद्र के संपूर्ण जीवन को कलाकारों द्वारा रंगमंच पर किया गया अभिनय संचार के विकास क्रम में नुक्कड़ नाटक ,नौटंकी ,नाच और रामलीला का अपना एक विशेष स्थान हुआ करता था जिसमे रामलीला तो अपने चरम पर था भगवन श्रीरामचंद्र की धार्मिक महागाथा का मंचन जब कलाकारों द्वारा किया जाता था तब दर्शको का मन श्रद्धा से भर उठता था।आज मै अपने गाव की रामलीला के बारे में बताना चाहता हू तो ध्यान दीजिए क्योकि एक शब्द भी आपसे छूट गया तो फ़िर न पा सकेगे।पूर्वांचल क्षेत्र में सबसे प्राचीन और अनवरत चलने वाली रामलीला में अगर सर्वप्रथम सराय हरखू या फ़िर गुलजार गंज की रामलीला को माना जाता है तो वही रामदयाल गंज की रामलीला का भी स्थान बहुत पीछे नही है।तक़रीबन १९५६ के पहले ही इस रामलीला की आधारशिला रखी जा चुकी थी गाव के ही एक सज्जन श्री शंकर जी के कठिन प्रयासों से इसकी शुरुवात लगभग १९४८ में हो चुकी थी तब न तो रंगमंच के नाम पर स्टेज का प्रबंध था और न ही ड्रेस के नाम पर कपड़ो का और डायलाग के नाम पर इन सीधे -सादे ग्रामीणों के पास एक ही वाक्य था "ले लेई था "सुनने में बहुत अजीब महसूस होता होगा लेकिन संप्रेषण के नाम पर यह शब्द ही आने वाली विकसित रामलीला की नीव का पत्थर साबित हुआ । दशहरे के दिन खेले जाने वाली इस रामलीला में पात्रो को दो वर्गों में बाट दिया जाता थाएक पक्ष रावण की सेना मानी जाती थी जिसे दुष्टों की सेना की संज्ञा दी गई थी तो दूसरी तरफ राम की सेना होती थी जिसे नारायण की सेना के नाम से पुकारा जाता था।मेकअप के नाम पर केवल कोयले के चूरे का प्रयोग होता था जिसे पानी में मिलाकर मुह पर मल लिया जाता था।लकड़ी का तलवार और कपड़े के ऊपर पुराने बोरा का इस्तेमाल किया जाता था। इन्ही हथियारों से सुसज्जित राम और रावण की सेनाये तब के डाइरेक्टर शंकर जी के इशारे पर एक दुसरे पर टूट पड़ते थे और श्रीरामचंद्र जी रावण का संहार कर देते थे और यकीन मानिये उस समय दर्शको की संख्या का अंदाज़ा लगाना बहुत ही कठिन होता था।राम के द्वारा रावण के वध के बाद श्रीरामचंद्र की जय घोष समस्त गाव में सुनाई पड़ता था।अक्टूबर १९५७ में रामलीला का विधिवत शुरुवात हुई जिसमे मंच बनाया गया उस समय रामचंदर लेखपाल (औरा जमालपुर )ने सराय हरखू जाकर पंडित बेनी प्रसाद सिन्हा द्वारा लिखित रामलीला किताब को ले आए और प्रथम बार रामलीला का मंचन किताब के द्वारा विधिवत किया गया। स्टेज के आलावा परदे और वस्त्र के लिए सरकारी मदद ली गई और ब्लाक पर से इसकी व्यवस्था हुई वस्त्रो में कुरता,चुस्तियार प्रचलन में थे। उस समय रामलीला में गीतों व् गायन का कोई स्थान नही था केवल शब्दों के द्वारा ही रामलीला सम्पन्न होती थी बाद में काफी सुधार हुआ गायन और संगीत का मधुर समावेश होने लगा। मनोरंजन के नाम पर ग्रामीणों के लिए एक खास अवसर होती थी रामलीला, दर्शक वहा दर्शक के रूप में नही बल्कि यु कहिये वे श्रद्धालू के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे जब श्रीरामजी मंच पर आते तो समस्त प्रागण में जय श्रीराम का उद्घोष आज भी हमारे बुजुर्गो के ज़ेहन में ताजा है और जब लक्ष्मण को शक्ति बाड़ लगती और राम विलाप कराने लगते थे तब दर्शको की भी हिचकिया बंध जाती थीकहने का अर्थ है लोग भावनात्मक रूप से जुड़े थे। १९५७ से शुरू रामदयाल गंज की रामलीला आज भी अनवरत जारी है तब से लेकर आज तक काफी बदलाव आ चुका है दर्शको में भावना का लोप हो चला है लेकिन रंगमंच पर कलाकारों द्वारा किया जाने वाला अभिनय आज भी बेजोड़ है। बात जब रामलीला की हो रही हो तो रंगमंचकर्मी महबूब अली की बात न करना इस लेख में अधूरापन भरता है १९५७ से आज तक अनवरत अपनी सेवाए देते आए है महबूब। लगभग सभी प्रमुख पात्रो का किरदार अपने ज़बरदस्त अंदाज़ में निभा चुके महबूब अली रामदयाल गंज की रामलीला की जीवित किदवंती बने हुए है। अभिनय के साथ-साथ इन्होने रामलीला की पुस्तक में गीतों और कई धुनों का समावेश भी किया है। और अगर आप एक मुस्लिम कलाकार को रामलीला में देखकर चौक रहे है तो धीरज रखिये क्योकि आगे भी और कई मुस्लिम चहरे मिलेगे मेरे गाव की रामलीला में। हिंदू-मुस्लिम एकता की अद्भुत मिसाल रखने वाली यह रामलीला अन्यत्र कही देखने को शायद ही मिले। मेरी बात का भरोसा न हो तो चले आइए कभी हमारे गाव ................

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

नक्सलबाड़ी

झारखण्ड के चेतरा जिले में एक सास्कृतिक कार्यक्रम के दौरान नक्सली हमला जिसमे नौ लोग हताहत हुए ,उड़ीसा के मयुरभंज जिले में फ़ुटबाल मैच के पुरस्कार वितरण के समय गोलिया दन्दनायी जिसमे तीन जाने चली गई चतरा के नवाडीह मिडिल स्कूल को बम से उड़ाया,इसरी में अजमेर शरीफ की जियारत में जा रहे बस में सवार जायरीनों पर प्राणघातक हमला जिसमे बारह लोग गंम्भीर रूप से घायल हुए और तो और छात्रधर महतो के रिहाई के लिये राजधानी एक्सप्रेस तक को अगवा कर लिया जाता है वह भी पूरे पांच घंटे तक ये तो महज़ फ़िल्म का ट्रेलर है आगे भी बहुत कुछ और है जो अक्सर खबरों में आता रहता है नक्सलबाड़ी गाव से उठी ये आवाज आज नक्सलपंथ का रूप अख्तियार कर चुकी है १९६७ में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाव के स्थानीय जमीदारों के खिलाफ जो युवाओ का चेहरा था आज वो अधिक विकृत नजर आता है उनकी हिसक गतिविधियों ने पूरे प्रशासन को चुनौती दी तब काग्रेसी नेता सिद्धार्थ शंकर राय मुख्यमंत्री थे नक्सलपंथ को ख़त्म करने का आदेश दिया गया जुलाई -अगस्त १९७१ में सेना के कोई ४०००० जवान तैनात किए गए धर पकड़ चालू हुआ और ४५ दिन की कवायद में ही सारा काम पूरा हो गया १९७२ में चारू मजुमदार को पकड़ा गया जिसकी मौत पुलिस हिरासत में हुई किसी भी राष्ट्र के लिए ये बहुत बड़ी शर्मिंदगी की बात होती है लेकिन भारतीय पुलिस का यह पराक्रम तो आदि से है प्रधानमंत्री ने पुलिस प्रमुखों के सम्मलेन में भी नक्सली हिंसा को बड़ी चुनौती बताया लेकिन केन्द्र तब से एक सूत भी आगे नही चली सिर्फ़ झारखण्ड में ही ३२९ से ज्यादा पुलिसकर्मी नक्सलपंथ की भेट चढ़ चुके है। झारखण्ड जहा २००३ में लगभग चार जिले नक्सली समस्या से ग्रस्त थे वही २००९ में दशा यह है की चौबीस में से बाईस जिलो में इनका वर्चस्व स्थापित हो चला है पश्चिम बंगाल ,बिहार ,आँध्रप्रदेश ,झारखण्ड ,महाराष्ट्र यूपी सहित बाईस राज्य नक्सलवाद के लाल सलाम के आगे नतमस्तक हो चले है अपरहड़,वसूली ,लेवी से प्राप्त धनो का आकड़ा इसी बात से लगाया जा सकता है की आज नक्सलियों की कुल वार्षिक आय १५००० करोड़ रू है यानि की बिहार राज्य के वार्षिक आय से भी ज्यादा अपने मूल मकसद से भटक चली यह संस्था आज सरकार के गले की सबसे बड़ी फास बन चुकी है "माओ ने यह सीख थी थी की कोई भी क्रांति तब तक सफल नही हो सकती जब तक कम्युनिस्ट जनता के बीच उसी तरह से सहज रूप से नही घुल मिल पाते ,जैसे जल में मछली रहती हो जाहिर है बन्दूक के जोर पर एसा नही हो सकतादिमाग में कई यक्ष प्रश्न दौड़ रहे है नक्सलपंथ का मकसद क्या है क्या वे सरकार के सामानांतर अपनी सत्ता स्थापित करना चाहते है या मजलूमों के हक़ की लड़ाई लड़ना ज़ाहिर है गरीबो के हक़ में लड़ने के लिए उनके साथ अपना खून पसीना एक करना होगा बजाय इसके की मासूम जनता का ही बेदर्दी से कत्ल कर दिया जाय वही दूसरी तरफ़ सवाल उठता है की क्या इनसे निपटने का सरकार का तरीका कितना सही था कोबाद गाँधी ,छात्रधर महतो को महज जेल भेज देने या गृहमंत्री महोदय के एलान करने से की नक्सलियों से सख्ती से निपटा जायगा इस समस्या का हल होता नही दिख रहा बार बार बुधिजिवियो के चेताने के बावजूद भी सरकार की योजना कभी इस पार तो कभी उस पार वाली नज़र आती है।शरीर का कोई अंग सड़ जायतो उसे काट कर फेका जा सकता है लेकिन जब दिल में ही नासूर हो तो उसका हल केवल इलाज ही है जरूरत है मर्ज को समझाने की और इलाज को इजाद करने का जो की भविष्य के गर्त में है।

रविवार, 4 अक्तूबर 2009

भारतीय रेल

एक तरफ टकटकी लगाये लोगो का हुजूम ,हर इंसान की जुबा पर एक ही चर्चा "अभी नही आई अब तक आ जाना चाहिए था "ज्यादा मत सोचिये ये लोग किसी मंत्री या अभिनेत्री की राह नही देख रहे बल्कि अपनी मंजिल की तरफ जाने वाली ट्रेनों के इंतजार में है नज़ारा है रेलवे स्टेशन का ,आवाम बदली सरकारे बदली लेकिन नही बदली तो केवल भारतीय रेल व्यवस्था कल मेरे मोबाईल पर एक मेसेज आया जिसमे मेरे मित्र ने एक सवाल किया था की दुनिया की सबसे लम्बी टायलेट कहा पर है ?सवाल पढ़कर मै सोचने लगा फ़िर मैंने उससे कहा भाई कुछ हिंट तो दो जवाब में बताया गया यह टायलेट हजारो किलोमीटर लंबा है सुनकर मै चकरा गया इतना लंबा टायलेट कही हो सकता है थकहार कर मैंने उससे कहा यार अब जवाब भी बता दो ये मेरी समझ के बाहर है तो उसने जवाब भेजा " भारतीय रेलवे ट्रेक "सुनकर हसी छुट गई लेकिन सोचिये क्या यह उत्तर ग़लत है दुनिया भर में दूसरा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क हमारा है पता नही कितनी ट्रेने प्रतिदिन चलती रहती है देस की आय का एक बहुत बड़ा जरिया है भारतीय रेलवे और हमें जानने समझने का पूरा हक़ है की हमारे इन पैसों का व्यय या सदुपयोग हमारी भले के लिए किस हद तक खर्च किया जाता है आज जबकि ट्रेनों का कम्पुतिरिकरण हो चला है अत्याधुनिक मशीने इस कार्य में लग चुकी है बावजूद इसके आज भी हमारे यहाँ ट्रेने नेताओ की तरह हमेसा लेट आती है और इनके कारणों में एक है रेलवे ट्रेको का सुचारू रूप से न होना बहुत सी ऐसी जगह जहा पर आज भी डबल ट्रेक की व्यवस्था नही हो पाई है (विधुतीकरण की बात ही छोडिए)साथ ही साथ प्रबंधन की दिक्कते भी शामिल है दुनिया में दूसरा सबसे ज्यादा कर्मचारियों वाला यह विभाग अपनी जिम्मेदारियों से हमेशी ही भागता रहा है सुरक्षा की अगर बात की जाय तो तस्वीर और भी बुरी नज़र आती है आयेदिन ट्रेनों में पड़ने वाली दकैतियाऔर जहरखुरानी की घटना तो आम बात हो चली है इसकी जिम्मेदारी न तो सरकार लेती है और न ही रेलवे अधिकारी सुरक्षाबलो की तो बात ही छोडिए ये महोदय तो केवल अपनी जेबे गर्म करने के चक्कर में लगे रहते है पकड़ा उन्हें जाता है जो बेकसूर होते है बात तो यहाँ तक सुनाई देती है की डकैतों और जहरखुरानों से रेलवे पुलिस की सठ्गठ भी होती एक निश्चित रकम या यो कहिये की लूट में एक हिस्सा इनके नाम चढाया जाता है अख़बार वालो की दया से खबरे यहाँ तक आई है की सुरक्षाबलो द्वारा भी लूट की घटना को अंजाम दिया गया है दो चार दिन हो हल्ला मचता है खबरनवीस अपने कलम की कुछ स्याही और कागजों के कुछ पन्ने काले करते है फ़िर सब कुछ सामान्य हो जाता है चोर ,उठैगिरो ,डकैतों और जहार्खुरानो का धंधा फ़िर से सुचारू रूप से चालू हो जाता है परेशां होता है तो सिर्फ़ आम आदमी जिसे जल्द से जल्द अपने मंजिल तक पहुचना होता है बात अगर परेशानियों या सरकार की शिकायतों की करे तो एक नही कई कागजों के ढेर लग जायेगे वैसे भी परेशानियों या बदहाली का रोना रोने से कुछ ठीक होने वाला भिया नही ,जरुरत है उन जवाबो को ढूढने की और उस पर अम्ल करने की नही बल्कि एक क्रांति करने की जिसे आप या हम सभी जानते है

सोमवार, 28 सितंबर 2009

दरिया - दुर्दशा

''जल ही जीवन है '' अपने आप में एक पूर्ण सत्य है यह वाक्य , नदियों के किनारों से ही जन्म हुआ मानव सभ्यता का चाहे वो सिन्धु नदी सभ्यता हो या नील नदी से अवतरित मिस्र की सभ्यता अथवा दजला फरातके किनारे जन्मी मेसोपोटामिया की सभ्यता ये सभी नदियों के किनारे ही पल्लवित और पोषित हुई मानव सभ्यता उत्तरोत्तर आगे ही बढ़ती गयी और पुरे विश्व में छा गई भारतवर्ष जिसे नदियों का देश भी कहाजाता हैप्रकृति ने यहाँ नदियों का जाल सा बिछा रखा है सदियों से भारतवंशियों ने नदियों को माँ के समान दर्जा दिया उसकी पूजा की गंगा यमुना ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियों के साथ कितनी ही छोटी-छोटी नदिया देश भर में पानी की जरुरतो को पूरा करती हुई इस मानव सभ्यता जो अनवरत आगे बढ़ा रही है कितनी ही धार्मिक और एतिहासिक कथाये इन नदियों से जुड़ी है बालकृष्ण की नटखट लीला को तो केवल यमुना का किनारा ही बया कर सकता है और न जाने कितनी ही कथाये बिखरी पड़ी है इन खामोश नदियों केकिनारे ..........
''पतितपाविनी गंगा '' माना गया है की ये शिवजी की जटा से उत्त्पन्न हुई है जिन्हें भगीरथ ने अपनी कठिन तपस्या से इस धरती पर मानव कल्याण के उतारा था कथा चाहे जो भी रही हो लेकिन भारत की नदियों में एक श्रेष्ठ स्थान रखती है गंगा ऋषिकेश गंगा केमैदानी भाग का प्रवेश द्वार जहा से गंगा मैदानी भागो को हरा-भरा उपजाऊ करती चली आई है लगभग २५०० किमी लम्बी यह नदी अपने सफर में ७५ करोर टन मिटटी उठाती है गंगा का मैदान आबादी का सबसे घाना छेत्र माना जाता है गंगा के तट पर बसावट बहुत तेजी के साथ हुआ खासतौर से बनारस नगरी में लगभग १५ लाख से उपर कि आबादी का छेत्र है बनारस बनारस कि मस्ती बनारस का अल्हड़पन तो विख्यात है लेकिन इसके साथ जुड़ गया है एक स्याह पहलु भी जिस मोक्षदायिनी गंगा ने हमेसैकडो वर्षो से अपना प्यार अपना दुलार दिया बदले में हमने उसे क्या दिया गौर फरमाइए जरा इन आकडो पर जो केवल बनारस शहर के है सभी को मोक्ष प्रदान करने वाली पावन गंगा आज सीवेज के कारण८०%प्रदूषित हो चुकी है ८करोड़ लीटर मलबा सीधे घाटों के द्वारा नदी में पहुचता है १३०करोर लीटर सीवेज का कचरा प्रतिदिन हम इस मोक्षदायिनी को अर्पित करते है १५००० टन राख केवल श्यमसान घाटो के द्वारा इस नदी में जाता इसके साथ ही साथ श्रद्धालुओ का दबाव भी बहुत ज्यादा है रोजाना तक़रीबन ७००० लोग इस नदी में नहाते धोते है जबकि विशेष धार्मिक अवसरों पर इनकी संख्या तो लाखो में पहुच जाती है आज गंगा के पानी में बैक्टेरिया १०० एम्एल /६०००० प्वाएंत तक है सोचा जा सकता है क्या हाल कर दिया हमने अपनी मोक्षदायिनी का जो हमेशा से ही देती आई है एसा हाल केवल गंगा का ही नही अपितु लगभग सभी नदियों का हो चला है ६०% से अधिक डैम नदियों पर बनाये जा चुके है जिनकी संख्या लगभग ५०००० है सभ्यता के विकास का सीधा नाता रहाहै इन नदियों से और आज नही तो कल सभ्यता के विनाश का नाता होगा अगर हम न सुधरे ...........

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

परिकल्पना :तीसरे विश्व युद्ध की

तमाम बुद्धिजीवी वर्ग अक्सर कयास लगते रहते है की तीसरा विश्व युद्ध किन कारणों से होगा कोई पानी तो कोई परमाणु बताता है आज का परिदृश्य भी कुछ एसा ही है शक्ति मिलने पर मनुष्य की प्रवित्तिअहंकारी हो ही जाती है जिसे आज का बुद्धिजीवी वर्ग भी नही समझ पा रहा सदियों पहले भगवान कृष्ण ने इसे समझ लिया था तभी महाभारत युद्ध के बाद दुर्वासा ऋषि के शाप के द्वारा शक्तिशाली यादव वंस का सर्वनास कराया साथ ही अपने मुक्ति का द्वार भी खोल लिया आज भले ही दुनिया परमाणु के ढेर पर खड़ीहो लेकिन तीसरे विश्व युद्ध का कारण कुछ और ही होगा और वो कारण है सभ्यताओ का महायुद्ध धर्म के अनुयायियों का भीषड़ संग्राम जो पुरी दुनिया को अपने चपेट में ले लेगा आज से कुछ सौ साल पहले जब इस्लाम धर्म का उदय हुआ उस समय भी कई धर्म और सभ्य्ताये मौजूद थीं लेकिन धीरे धीरे जब इस्लाम ने अपने कदम मक्का से आगे बढाये तो कितने ही धर्मो और सभ्यताओ का उनमे विलय हो गया वजह चाहे जो भी रही हो चाहे वो "इस्लाम का शक्तिशाली आधार रहा हो या मुसलमानों का ऊँचा मनोबल "लेकिन सत्य यही है की जितनी तेजी से इस्लाम ने पुरे विश्व में अपना झंडा बुलंद किया उतनी तेजी से किसी और ने नही यही वजह है आज आधी दुनिया इस्लाम की अनुयायी है और धर्मो के बीच टकराव तो सदियों से होता चला आ रहा प्राचीन मिश्र को ही ले लीजिये जहा पर १८वे साम्राज्य के पहले प्रमुख देवता सूर्य थे जिन्हें आमोन कहा जाता था बाद में एमोन रे नम के देवता ने इनका स्थान ले लिया १९वे वंस में प्रतापी रजा एमोन्हेतोप चतुर्थ जिसने अपना नम बदलकर एखनातोंन कर लिया था उसने ओतोन देवता की सत्ता घोषित कर दी और उसने हुक्म दिया की ओतोन के सिवा सारे देवताओ का नाम मिटा दिया जाय इसी तरह देवताओ के आड़ में मनुष्यों ने परस्पर अपने धर्म और देवताओ को लेकर जंग लड़ी और जब हम ईसामसीह के बाद का अवलोकन करते है तो पाते है की इसाइयत ने भी अपना प्रचार प्रसार बड़ी तीव्र गति से किया फलस्वरूप आज इस्लाम के बाद केवल इसाइ ही है जो लगातार अपनी वृध्ही दर्ज करना चाहते है
और ये भविष्य वाणी करना ज्यादा मुश्किल नही होगा की वह दिन दूर नही जब दो महाशक्तियों का एक महासंग्राम होगा जिसमे हजारो लाखो लोग मरे जायेगे लेकिन इसके साथही उठेगा प्रकिती का कहर जो पुरी दुनिया को तबाह कर देने के लिए काफी होगा
और फ़िर से होगा एक नई मानव सभ्यता का जन्म ;

रविवार, 19 अप्रैल 2009

अर्थ-अनर्थ

"जेहाद" जिसका अर्थ है धर्म -उध्ह लेकिन आज जेहाद के मायने बदल गये है जेहाद का मतलब अब महज खून की नदिया बहाना हो गया है जो हाथ पहले काफिरों का खून बहाते थे आज वही अपने भाइयो का भी खून बहाने से नही हिचकते वह भी जेहाद की आण में आज का आम मुसलमान यह तय नही कर पा रहा कि जेहाद का मतलब क्या होता है क्या ये सही है या गलत ?
इसी तरह कुछ और शब्द है जिनके मायने बदल गये है जैसे "कट्टर " कोई हिंदू अगर आर एस एस का सदस्य हो जाता है तो उसे कट्टर हिंदू के नाम से नवाज़ दिया जाता है ठीक उसी तरह कोई मुसलमान पाचों वक्त नमाज़ अता करे ,खुदा कि इबादत करे तो उसे कट्टर मुसलमान कह दिया जाता है
यहा कट्टरता का अर्थ पूरी तरह से उल्टा करके रख दिया गया है ,कट्टरता का अर्थ है अपने धर्म ,मजहब को पूरी तरह से मानना और उस पर अम्ल करना किस धर्म में लिखा है कि दुसरे धर्मो की बुराई करो उन्हें नीचा दिखाओ और आज जो लोग ऐसा करते है उन्हें ही कट्टर कहा जाता है चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान
इसी कड़ी में आता है एक शब्द "नेता " जिसका अर्थ है है जननायक जो जनता की आवाज़ बुलंद करता हो जो आम जन के बीच से निकला हो जिसने आम जनता की दुस्वारिया झेली हो जैसे हमारे नेताजी सुभास चन्द्र बोस और अब पन्ना उलटते है तो पाते है कुछ नाम जिन्हें सारा देश जनता है उनका जनता से कितना जुडाव है सबको पता है फ़िर भी चुनना है क्योकि लोकतंत्र है तो जो सबसे कम बुरा हों उसी को चुन लो ; सबके मन में चोर है सब सत्ता के लोभी है और क्यों न हो राजनीती आज व्यापार बन चुकी है एक करोड़ लगाये है पाच साल में दस करोड़ कमाना है बस यही मकसद है जनता जाए भांड में राजनीती अब राजनीती न रहकर व्यापार नित बन चुकी है इस शब्द के मायने भी बदल चुके है रही बात नेताजी की तो इसका अर्थ कभी आम जनता से पूछिये वो आपको इनकी विशेषता के पहाड बता देगा
और कुछ तो यहाँ तक कहते नजर आते है की
( नेता वाही जो ताने रहे ,सुरा सुन्दरी भंग छाने रहे)