शनिवार, 28 अगस्त 2010

ममता+माओवादी=बंगाल फतह

राजनैतिक गलियारों में ममता कि हलचल  साफ़ सुनाई दे  रही है आने वाले बंगाल के चुनाव में कांग्रेस और अब तक के बेताज बादशाह रहे वाम दल के धुरंधरों को ममता के कठोर दाव का कोई काट नहीं मिल पा रहा रेल के सहारे बंगाल फतह करने की कोशिश में मशगूल ममता को मओवादियो से भी हाथ मिलाने में कोई गुरेज़ नहीं लालगढ़ की रैली इसका सबसे बड़ा सबूत है जिसमे हजारो माओवादी लड़ाको ने हिस्सा लिया असल में भारतीय राजनेताओ की कमजोरी हमेशा से सत्ता ही रही है येन केन प्रकरेण हमें सत्ता चाहिए यही लक्ष्य है और इस लक्ष्य  को भेदने के लिये किसी भी नैतिक अनैतिक हथियार का इस्तेमाल वे जायज़ सम झते है
खैर बात यहाँ ममता की हो रही है जो बंगाल में एक नयी मायावती बनना चाहती  है जिसके लिये मओवादियो से साठ गाठ करना उनकी अब मजबूरी हो गयी है "सत्ता से ज्यादा दिन दूर रहना तो अखरता ही है"
लेकिन उन्हें शायद ये आभास नहीं है की शेर की सवारी करना हमेशा  घातक होता है जब तक आप शेर की पीठ पर बैठे हो तब तक तो ठीक है लेकिन जिस दिन उसकी पीठ से खिसके वो दिन आखिरी दिन हो जाता है चूकि यहाँ मओवादियो को भी अपनी सुरक्षा और सहूलियत के लिये एक ऐसे कंधे की जरूरत है जो की ममता मैया से पूरी होती दिखाई दे रही है और इधर ममता के लक्ष्य की पूर्ती इन मओवादियो से हाथ मिलाने में ही दिखाई दे रही  है
आइना एकदम साफ़ है दोनों अपने हितो की पूर्ती हेतु एक दूसरे को गाठना चाहते है लेकिन यहाँ यह भी देखना जरूरी है क्या ममता सत्तानशीं होने के बाद मओवादियो के समस्त हितो को पूर्ती कर पायेगी? शायद नहीं
फलस्वरूप मओवादियो का प्रचंड रूप तो ममता के कार्यकाल में दिखाई देने की संभावना है
किसी भी देश में तख्तापलट कर सत्ता को कब्जाना और साम्यवाद को फैलाना मओवादियो का एकमात्र धर्म है इसके लिये वे तीन चरणों में काम करते है पहले चरण में वे जनमानस के बीच घुलते मिलते है दूसरे चरण में उनकी परेशानियों को लेकर विद्रोह का वातावरण तैयार करते है और राजनैतिक दलो में सेंधमारी करते है आखिरी चरण में संवाद और तलवार की ताकत से सत्ता के शीर्ष पर पहुँच जातें है जैसा की नेपाल में उन्होंने कमल दहल प्रचंड के नेतृत्व में किया इससे इनके हौसले बुलंद है की एक दिन हिंदुस्तान भी साम्यवाद को अपना लेगा जिसमे आर्थिक रूप से मदद चीन और अन्य शत्रु देशो द्वारा होता है जो भारत को लगातार अस्थिर करने की कोशिश में लगे रहते है जैसा की मीडिया में खबर आई थी की मओवादियो ने पाक परस्त आतंकी संगठन से गठजोड़ कर लिया यह खबर इस अंदाजे की पुष्टि करने के लिये काफी है
और इधर अपनी सरकार को बचाने की कवायद में भारत की सबसे पुरानी पार्टी अपने रेलमंत्री पर भी लगाम नहीं लगा पा रही आये दिन रेल हादसों के बीच भी शायद ममता जी को उन गरीब लोगो की आवाज़ नहीं सुनाई दे रही जो इन दुर्घटनाओ में अपनों की जान गवा बैठे है इन्हें तो बस फिक्र है केवल और केवल अपनी कुर्सी की
एक सवाल मन में हलचल मचाता रहता है आखिर कब जनता की चेतना जागेगी और कब दूसरी आजादी का बिगुल बजेगा   

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