बुधवार, 2 दिसंबर 2009

रामलीला

रामलीला अर्थात भगवन श्रीरामचंद्र के संपूर्ण जीवन को कलाकारों द्वारा रंगमंच पर किया गया अभिनय संचार के विकास क्रम में नुक्कड़ नाटक ,नौटंकी ,नाच और रामलीला का अपना एक विशेष स्थान हुआ करता था जिसमे रामलीला तो अपने चरम पर था भगवन श्रीरामचंद्र की धार्मिक महागाथा का मंचन जब कलाकारों द्वारा किया जाता था तब दर्शको का मन श्रद्धा से भर उठता था।आज मै अपने गाव की रामलीला के बारे में बताना चाहता हू तो ध्यान दीजिए क्योकि एक शब्द भी आपसे छूट गया तो फ़िर न पा सकेगे।पूर्वांचल क्षेत्र में सबसे प्राचीन और अनवरत चलने वाली रामलीला में अगर सर्वप्रथम सराय हरखू या फ़िर गुलजार गंज की रामलीला को माना जाता है तो वही रामदयाल गंज की रामलीला का भी स्थान बहुत पीछे नही है।तक़रीबन १९५६ के पहले ही इस रामलीला की आधारशिला रखी जा चुकी थी गाव के ही एक सज्जन श्री शंकर जी के कठिन प्रयासों से इसकी शुरुवात लगभग १९४८ में हो चुकी थी तब न तो रंगमंच के नाम पर स्टेज का प्रबंध था और न ही ड्रेस के नाम पर कपड़ो का और डायलाग के नाम पर इन सीधे -सादे ग्रामीणों के पास एक ही वाक्य था "ले लेई था "सुनने में बहुत अजीब महसूस होता होगा लेकिन संप्रेषण के नाम पर यह शब्द ही आने वाली विकसित रामलीला की नीव का पत्थर साबित हुआ । दशहरे के दिन खेले जाने वाली इस रामलीला में पात्रो को दो वर्गों में बाट दिया जाता थाएक पक्ष रावण की सेना मानी जाती थी जिसे दुष्टों की सेना की संज्ञा दी गई थी तो दूसरी तरफ राम की सेना होती थी जिसे नारायण की सेना के नाम से पुकारा जाता था।मेकअप के नाम पर केवल कोयले के चूरे का प्रयोग होता था जिसे पानी में मिलाकर मुह पर मल लिया जाता था।लकड़ी का तलवार और कपड़े के ऊपर पुराने बोरा का इस्तेमाल किया जाता था। इन्ही हथियारों से सुसज्जित राम और रावण की सेनाये तब के डाइरेक्टर शंकर जी के इशारे पर एक दुसरे पर टूट पड़ते थे और श्रीरामचंद्र जी रावण का संहार कर देते थे और यकीन मानिये उस समय दर्शको की संख्या का अंदाज़ा लगाना बहुत ही कठिन होता था।राम के द्वारा रावण के वध के बाद श्रीरामचंद्र की जय घोष समस्त गाव में सुनाई पड़ता था।अक्टूबर १९५७ में रामलीला का विधिवत शुरुवात हुई जिसमे मंच बनाया गया उस समय रामचंदर लेखपाल (औरा जमालपुर )ने सराय हरखू जाकर पंडित बेनी प्रसाद सिन्हा द्वारा लिखित रामलीला किताब को ले आए और प्रथम बार रामलीला का मंचन किताब के द्वारा विधिवत किया गया। स्टेज के आलावा परदे और वस्त्र के लिए सरकारी मदद ली गई और ब्लाक पर से इसकी व्यवस्था हुई वस्त्रो में कुरता,चुस्तियार प्रचलन में थे। उस समय रामलीला में गीतों व् गायन का कोई स्थान नही था केवल शब्दों के द्वारा ही रामलीला सम्पन्न होती थी बाद में काफी सुधार हुआ गायन और संगीत का मधुर समावेश होने लगा। मनोरंजन के नाम पर ग्रामीणों के लिए एक खास अवसर होती थी रामलीला, दर्शक वहा दर्शक के रूप में नही बल्कि यु कहिये वे श्रद्धालू के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे जब श्रीरामजी मंच पर आते तो समस्त प्रागण में जय श्रीराम का उद्घोष आज भी हमारे बुजुर्गो के ज़ेहन में ताजा है और जब लक्ष्मण को शक्ति बाड़ लगती और राम विलाप कराने लगते थे तब दर्शको की भी हिचकिया बंध जाती थीकहने का अर्थ है लोग भावनात्मक रूप से जुड़े थे। १९५७ से शुरू रामदयाल गंज की रामलीला आज भी अनवरत जारी है तब से लेकर आज तक काफी बदलाव आ चुका है दर्शको में भावना का लोप हो चला है लेकिन रंगमंच पर कलाकारों द्वारा किया जाने वाला अभिनय आज भी बेजोड़ है। बात जब रामलीला की हो रही हो तो रंगमंचकर्मी महबूब अली की बात न करना इस लेख में अधूरापन भरता है १९५७ से आज तक अनवरत अपनी सेवाए देते आए है महबूब। लगभग सभी प्रमुख पात्रो का किरदार अपने ज़बरदस्त अंदाज़ में निभा चुके महबूब अली रामदयाल गंज की रामलीला की जीवित किदवंती बने हुए है। अभिनय के साथ-साथ इन्होने रामलीला की पुस्तक में गीतों और कई धुनों का समावेश भी किया है। और अगर आप एक मुस्लिम कलाकार को रामलीला में देखकर चौक रहे है तो धीरज रखिये क्योकि आगे भी और कई मुस्लिम चहरे मिलेगे मेरे गाव की रामलीला में। हिंदू-मुस्लिम एकता की अद्भुत मिसाल रखने वाली यह रामलीला अन्यत्र कही देखने को शायद ही मिले। मेरी बात का भरोसा न हो तो चले आइए कभी हमारे गाव ................

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