रविवार, 15 अगस्त 2010

दोषी कौन-नक्सली या सरकार

शुक्रवार में पढ़ा "नक्सलियों का दुश्मन " यह दुश्मन कोई इन्सान नहीं एक कुत्ता है जिसे भारत सरकार ने नक्सलियों से लोहा लेने के लिये विदेश से मगवाया है ये बेल्जियम शेफर्ड कुत्ते इस्रायली मैलिनावा और अमेरिकी मादा की क्रास औलाद है जिसे भारत सरकार छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में तैनात करना चाहती है इनको गोला बारूद सूघने की ट्रेनिग देने के पश्चात् इन्हें सी आर पी ऍफ़ के साथ तैनात किया जायेगा
अब सवाल ये उठता है की क्या ये उस भ्रष्ट तंत्र को भी सूघ पायेगे जिसकी वजह से हमारे जवान शहीद होते है क्या ये उस गन्दी राजनीती को सूघ पायेगे जो नक्सलियों के नाम पर खेले जाते है या फिर जनता को एक बार फिर से मूर्ख बनाने की तयारी की जा रही है
इसके पहले आउटलुक पत्रिका में अरुधंति राय का इंटरव्यू पढ़ा था जिसमे सुश्री राय ने अपने कुछ कीमती पल नक्सलियों के बीच उनकी व्यथा सुनते हुए गुजारी थी जिसका निष्कर्ष यह था की नक्सली अपनेआप को,अपने ज़मीं को,अपने लोगो को भारत सरकार से बचाने के लिये सशस्त्र सघर्ष कर रहे है काफी कुछ बाते भी थी जो दिल को हिला देने वाली भी थी सरकारी अधिकारियो का ख़राब बर्ताव उदहारण के तौर पर वन विभाग के अधिकारी तभी आदिवासियों के गावो में जाते थे जब उन्हें मुर्गी या लड़की की ज़रुरत होती थी या फिर अपने ज़मीं की खेती के लिये मजदूरों की ज़रुरत पड़ने पर आदिवासियों का प्रयोग बंधुवा मजदूरी के लिये करना होता है
माना जा सकता है ऐसी घटनाओ में सत्यता ज़रूर होती होगी पूरी तरह से प्रशासन अपने आप को निर्दोष और आदिवासियों को दोषी नहीं करार दे सकता लेकिन अरुदंती जी को केवल इतना देखकर संतुष्ट हो जाना ठीक है?
मै उन्हें गलत नहीं समझता लेकिन उन्हें कुछ और अन्दर तक जाना चाहिए की कैसे नक्सली देश और सरकार को चोट पहुचने के लिये खतरनाक योजनाये बनाते है और सबसे बड़ा सवाल इनका आका कौन है?कही चीन तो नहीं 
इन्हें हथियार कौन मुहैया करता है?इनके बन्दूको में गोली कौन भरवाता है?और सबसे बड़ी बात-कौन है जो अपने विचारो को इनके विचारो में घोलता है और कैसे?
माओ ने कहा था क्रांति बन्दूक की नली से प्रवाहित होती है जिसे माओ ने सच कर दिखाया था लेकिन यह भी तो देखिये की उस चीन को विदेसियो से खतरा था ये नियम हर जगह लागू नहीं हो सकता खासतौर से भारत में यहाँ हम किसके खिलाफ लड़ रहे है और कौन सी आज़ादी माग रहे है इस सन्दर्भ में "एक नक्सली की डायरी " आँखे खोल देने वाला व्यक्तत्व है जिसे एक नक्सली कामरेड ने लिखा था -मार्च १९७३ में भद्राचलम के कालेज से निकलकर किस तरह उसने जवानी की उन्माद में जंगल का रूख किया और १९७३ से २०१० तक उसने क्या खोया क्या पाया सारांश यह था की नक्सली आन्दोलन एक केवल एक छलावा है ठीक उसी तरह जिस तरह से हमारे प्यारे नेताओ के वादे अंतर केवल शब्दों के हेरफेर का है(एक नक्सली की डायरी ,अमर उजाला ६जून २०१०)
अफ़सोस तो इस बात का है की हमारे देश के निति-नियंता सब कुछ जानते हुए भी खामोश है वो भी महज़ चन्द वोटो और नोटों के किये ताकि इन्हें सत्ता की मलाई मिलाती रहे इनके लिये चाहे देश के जवान मरे जाये या वो बदनसीब आदिवासी या कथित माओवादी जिन्हें खुद नहीं पता की वो क्या कर रहे है?

1 टिप्पणी:

  1. naksaliyon per likhnne ka vichar achha hai kintu kya ? ye thik hai ki ham apne vichar apni soch ko na darsha kar sirf logon dwara kiye ja rahe prayas me kamiyan nikalen . aapne ms rai ki bat kahi mera manana hai ki ms. rai badhai ki patr hai ki unhone unki taklif ko janane ki koshish to ki baki ham aap jaise chand blogger hai jo apne blog pe likhte to badi badi baaten hai lekin vastv me karn kuchh nahi jante

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